खुशियों का स्कूल

• वसीली सुखोम्लीन्स्की

प्रसिद्ध रूसी शिक्षाशास्त्री वसीली सुखोम्लीन्स्की ने 52 वर्ष की अपनी छोटी-सी ज़िन्दगी में से 35 वर्ष बच्चों की शिक्षा-दीक्षा में बिताये। वे शहर से दूर एक उक्राइनी गाँव के स्कूल में प्रिंसि‍पल थे। उनका कहना था कि शिक्षक को शिक्षा देने से पहले बच्चे को प्यार देना चाहिए। तभी वह उनमें श्रम की खुशी, मित्रता और मानवीयता की भावनाएँ भी जगा सकता है। उन्होंने अपने व्यवहार और सिद्धान्त में यह सिद्ध कर दिया था कि हर सामान्य बच्चे को योग्य और अयोग्य की श्रेणी में बाँटे बिना ही उन्हें आगे बढ़ाया जा सकता है। ‘टु चिल्ड्रन आई गिव माई हार्ट’ उनकी डायरी है, जो अनोखे अनुभवों से भरी पड़ी है, यहाँ हम उन अनुभवों का सार दे रहे हैं। — सम्पादक


तैंतीस साल तक मैंने ग्रामीण स्कूल में काम किया। इसे मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ। अगर कोई मुझसे पूछे कि मेरे जीवन में सबसे महत्वपूर्ण क्या रहा? तो मैं बिना हिचके उत्तर दूँगा — ‘बच्चों से प्रेम।’

ये वे दिन थे, जब ‘बचपन’ नाम के जादुई महल के द्वार मेरे लिए खुल गये थे। मैंने महसूस किया कि अध्यापक और छात्रों के बीच हृदय के रिश्ते का जुड़ना कितना ज़रूरी है। अध्यापक को एक माँ की तरह बच्चे के पास आना पड़ता है।

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद का समय था। युद्ध ने हर व्यक्ति को छुआ था। किसी को कम, किसी को ज्यादा। अधिकतर तो तहस-नहस ही हो गये थे। परिवार उजड़ गये थे, बच्चे अनाथ हो गये थे। इन बच्चों को संभालना मुश्किल काम था। नन्हें दिलों को जरा-सी भी तकलीफ पहुँचाये बिना, युद्ध के दिनों की बुरी यादों से उबार लाना था। कोत्या, गाल्या, पैत्रिक, कोल्या जैसे छह और सात साल के सैकड़ों बच्चे हमारे सामने थे। उनकी नीली, काली, आसमानी आँखों में झाँकते हुए मैं सोच रहा था कि क्या मुझमें इतनी नेकी, इतना स्नेह है कि मैं इन बाल हृदयों को खुशी दे पाऊँगा? इसीलिए मैंने अपने स्कूल का नाम रखा था — ‘‘खुशियों का स्कूल’’

सुबह से ही मैं बच्चों की प्रतीक्षा कर रहा था। करीब आठ बजे बच्चे आने शुरू हुए और आधे घंटे में ही लगभग 29 बच्चे आ गये। साशा नहीं आयी और बोआ भी दिखाई नहीं दिया। शायद सो रहा होगा। मैंने बच्चों का स्वागत किया और कहा — ‘‘आओ, चलो स्कूल चलें!’’ कहकर मैं बाग की ओर चल दिया। बच्चे हैरानी से मुझे देख रहे थे। मैंने उनके कंधे थपथपाये।

हमारा स्कूल नीले आसमान के नीचे हरी-भरी घास पर नाशपाती के छायादार पेड़ के नीचे था। वहाँ चारों तरफ अंगूर की बेलें फैली थीं। ‘आओ बच्चो, जूते उतार दें और नंगे पाँव घास पर चलें।’ — कहते हुए मैंने जूते उतार दिये। बच्चों की खुशी का ठिकाना न था। उन्होंने झट से जूते निकाल दिये और हरी, कोमल घास पर पाँव थपथपाने लगे। मुक्ति की यह पहली खुशी देख मैंने सोचा, ठीक ही नाम दिया है हमने इसका — ‘खुशियों का स्कूल’।

अंगूर वाटिका के हरे झुटपुटे में सारी दुनिया हरी-भरी लग रही थी। यद्यपि कुछ पल को उनके मन से संकोच हट रहा था। फिर भी बार-बार युद्ध के जख्म, माँ-बाप का बिछुड़ना, बमों के धमाकों से दहले हुए बचपन की छाया उनकी आँखों में तैर आती। सारा दिन यों ही कुछ न कुछ कहते-सुनते बीत रहा था, पर ज्यादातर बच्चे चुपचाप अपने में सिमटे हुए थे। दोपहर ढलने पर अंगूरों के गुच्छे ले, वे लौट गये।

मैंने तय कर लिया था कि अब उन्हें जीवन और प्रकृति की खुशियों से जोड़ना ज़रूरी है उनके साथ-साथ घास पर धीरे-धीरे कदम रखते हुए, बच्चों को मैं चिड़ियों, तितलियों के बारे में बताता। कुछ बच्चे सुनते, पर कुछ के कानों तक जाकर भी मेरे शब्द ज्यों के त्यों लौट आते। उनकी आँखों में न कोई उत्सुकता थी, न मुँह में प्रश्न। मैंने उन्हें शामिल करने के लिए पूछा — ‘‘बताओ बच्चो, यह सूरज कैसा लगता है?’’

बच्चों ने अपनी-अपनी कल्पना लगाई। किसी ने सोने का थाल बताया, तो किसी ने उसे बादलों के राजा का मुकुट बताया। अनमनी वोल्वा ने कहा — ‘‘वह चिनगारियाँ बिखेर रहा है, हमें जलाने के लिए।’’

‘‘हाँ, वे चिनगारियाँ ही हैं, पर वे जलाने के लिए नहीं हैं। वे तो उन लुहारों के हथौड़ों की हैं, जो सूरज के लिए सुनहरा और चाँद के लिए रुपहला मुकुट बनाते हैं।’’ — मैं उन्हें जो बता रहा था, उसका चित्र भी बना रहा था। बच्चे आश्चर्य से कूँची से रंग को कागज पर फैलता देख रहे थे।

समय बीत रहा था, ‘खुशियों के स्कूल’’ में बच्चे धीरे-धीरे मुखर हो रहे थे। वे ढेरों चित्र बनाते। जो मन में आता, कागज पर उकेर देते।

दोपहर का नाश्ता हम सभी साथ-साथ करते। ‘बाकरखानी’ (मीठी रोटी) के बड़े-बड़े टुकड़ों पर शहद लगाकर बच्चे ही एक-दूसरे को देते। गरमागरम सूप जो पास के खेतों में उगी ताजी सब्जियों से बनाया जाता, बच्चों में गरमाहट और ताजगी भर देता। दिन पर दिन बच्चे मन और तन से स्वस्थ हो रहे थे। पशु-पक्षियों, कीट-पतंगों और पेड़-पौधों का जीवन हमारे लिए सुखदायी है, यह समझने के लिए हम कहानियाँ सुनाते। ‘यूरा’ ने दो खरगोशों और साही की दोस्ती की कहानी सुनायी।

मीशा, कात्या, कोल्या चुप थे। मैं समझता था कि वे अभी अपने दुख से उबर नहीं पाये हैं। पहाड़ी के उस पार सूरज डूब रहा था, जिससे सारा दृश्य सिंदूरी हो गया था। पेड़-पौधे, बच्चों के चेहरे, कपड़े यहाँ तक कि उनकी आँखें भी सिंदूरी रंग में चमक रही थीं। एक दिन कोल्या कुछ देर से, पर भागता हुआ आया। उसके हाथ में गौरैया का एक घोंसला था। जिसमें दो छोटे-छोटे बच्चे लगातार चीं-चीं कर रहे थे। उत्सुक बच्चों ने उसे घेर लिया।

khushiyon-ka-school-1

‘‘क्या तुम जानते हो कोल्या, गौरैया अब इन बच्चों को नहीं पालेगी। ये मर जायेंगे?’’ — मैंने कहा।

पल भर को वह परेशान हुआ, फिर बोला — ‘‘तो मैं क्या करूँ?’’

हमने घोंसले को एक छोटी टोकरी में रख दिया। अँगीठी के पास रख गरमाई देने की कोशिश की, पर माँ चिड़िया के पंखों की गरमाई उन्हें नहीं मिल पाई और वे मर गये। बच्चे उदास हो गये। इसके बाद तो बच्चों के मन पशु-पक्षियों के लिए दया से भर गये। जल्दी ही एक घायल कठफोड़वा, एक पंख टूटा भरत पक्षी और एक छोटा खरगोश जिसकी टाँग में चोट लगी थी, हमारे स्कूल में आ गये। बच्चे हर समय इनकी देखभाल करते। खाने-पीने का इंतजाम करते। वसंत आने तक हमने इनका ध्यान रखा। सारे बच्चे उस दिन खुशी से फूले न समाये, जब भरत पक्षी ने पहली बार बाहर हवा में पंख फडफड़ाये और सुरीली आवाज में एक कूक भरी। बच्चे उसकी आवाज की नकल करते जहाँ-तहाँ कूद रहे थे। उनके चेहरे खुशी से चमक रहे थे।

खुशियों के स्कूल से कुछ ही दूरी पर एक ढलान थी। ढलान के पास गुफा जैसी जगह थी। बच्चों ने ही खेल-खेल में उसे खोज लिया था। हम सब उसमें घुसे, वहाँ काफी जगह थी। ठंडक ज्यादा थी, इसलिए ज़रूरी था कि वहाँ एक अँगीठी बनाई जाये। लगभग सप्ताह भर लगाकर बच्चों ने दीवारों को लीप लिया और एक बड़ी अँगीठी भी तैयार कर ली। मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि कोल्या और कोत्या सूखी घास को उठा-उठाकर ला रहे थे। मीसा साथियों के बनाये चित्रों को दीवार पर चिपका रही थी। पहली बार जिस दिन हमने अँगीठी जलाई, बाहर बर्फ़ की फुहार पड़ रही थी। ऐसे मौसम में हम सभी अपने ‘गरम स्वप्न लोक’ में बैठे गीत गा रहे थे।

khushiyon-ka-school-2

मेरी कोशिश यह थी कि हर बच्चा धीरे-धीरे निजी पुस्तकालय बनाये, ताकि पुस्तक पढ़ना उसकी आदत बन जाये। अपने अनुभव से मैंने पाया कि बच्चे को सत्य बताने की जगह उसे खोजने के लिए उकसाना ज्यादा अच्छा है।

khushiyon-ka-school-3

‘‘जीवन में सबसे ज़्यादा ज़रूरी क्या है?’’ — एक दिन स्वप्न-लोक में बैठे हुए मैंने पूछा। जवाब में बच्चों ने अलग-अलग नाम लिए — रोटी, पानी, हवा, मकान, बरतन, कपड़े। ‘‘रोटी ज़रूरी है, पर बनाने के लिए क्या चाहिए?’’ पूछने पर बच्चों ने कहा — ‘‘आग, बरतन…।’’

‘‘आग कहाँ से आती है?’’ पूछने पर जवाब मिला — ‘‘कोयले से!’’

— ‘‘और कोयला?’’

— ‘‘खान से।’’

— ‘‘खान से कौन निकालेगा?’’

‘‘मज़दूर।’’ — बच्चों ने समवेत स्वर में कहा।

— ‘‘मज़दूर मेहनत से कोयला निकालता है, किसान मेहनत से अनाज उगाता है। यानी मेहनत से सब कुछ बनाया-सँवारा जा सकता है।’’

तभी अचानक मैंने पूछा — ‘‘बताओ तो, सामने लटकती अंगूर की बेलें कैसी लग रही हैं?’’

‘‘हरे झरने जैसी!’’ — यह मीशा थी, जिसकी आँखों में जीवन की चमक मुझे दिखायी दे रही थी और मेरी पलकें खुशी से भीग आयीं।

Leave a comment