कैसे फैली दुनिया में बल्ब की रोशनी?
• आनन्द सिंह
सुबह से लेकर शाम तक सूरज की रोशनी से हमारे आस-पास का माहौल जगमगाता रहता है। लेकिन शाम होते ही यह रोशनी मद्धिम पड़ने लगती है। फिर एक समय ऐसा आता है जब सूरज डूब जाता है और चारों तरफ़ अंधेरा छा जाता है। लेकिन तभी हम बिजली का स्विच दबाकर बल्ब जलाते हैं और हमारा घर फिर से रोशन हो जाता है। सड़कों, पार्कों एवं बाज़ारों में हर जगह बिजली से जलने वाले बल्ब की रोशनी से एक बार फिर पूरा माहौल जगमगाने लगता है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि बिजली से जलने वाले बल्ब की रोशनी हमेशा से इंसानों की सेवा में नहीं हाज़िर थी। ज़्यादा नहीं अभी डेढ़ सौ साल पहले की बात है जब पूरी दुनिया में लोग शाम और रात को लालटेन, मोमबत्ती आदि जलाकर बहुत मद्धिम रोशनी में अपना काम चलाते थे। सोचने वाली बात है कि इतनी कम रोशनी में काम करना कितना कठिन रहा होगा। साथ ही साथ यह भी जानना दिलचस्प होगा कि दुनिया में बल्ब की रोशनी कैसे फैली।
शायद तुमने सामान्य ज्ञान की किताबों में पढ़ा होगा कि बल्ब की खोज एडिसन नामक एक अमेरिकी वैज्ञानिक ने की थी। लेकिन यह तथ्य केवल आंशिक रूप से ही सही है। पूरी सच्चाई यह है कि बिजली से जलने वाले बल्ब की खोज एडिसन से पहले ही कई वैज्ञानिक कर चुके थे। हालाँकि बिजली से जलने वाले बल्ब की खोज 19वीं सदी की शुरुआत में ही हो चुकी थी, लेकिन 1879 से पहले तक बिजली से जलने वाले बल्ब बहुत कम समय तक ही जल पाते थे और उनको बनाना बेहद खर्चीला था। एडिसन का योगदान यह था कि उन्होंने एक ऐसा बल्ब बनाया जो सस्ता था और जो लंबे समय तक रोशनी देता था। साथ ही हमें यह भी जानना ज़रूरी है कि एडिसन ने यह काम अकेले नहीं किया था। बेशक एडिसन ने इस खोज के लिए दिन-रात एक करते हुए वर्षों तक अनथक प्रयास और कठिन परिश्रम किया था, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि इस पूरी खोजी प्रक्रिया में उनके साथ तमाम सहयोगी भी शामिल थे जिनके सहयोग और परिश्रम के बगैर एडिसन यह खोज नहीं कर सकते थे। इस प्रकार हम पाते हैं कि तमाम खोजों की ही तरह बल्ब की खोज मानव के सामूहिक प्रयासों का नतीजा थी।
आओ अब हम देखते हैं कि एडिसन ने जिस बल्ब की खोज की थी वह जलता कैसे है। यदि इस बल्ब को ग़ौर से देखोगे तो पाओगे कि यह एक महीन शीशे का बना होता है जिसका आकार गोल होता है। इसके भीतर एक बहुत पतले तार जैसी कोई चीज़ होती है जिसे फिलामेंट कहते हैं। एडिसन के समय कार्बन का फिलामेंट इस्तेमाल होता था,परन्तु अब टंगस्टन नामक धातु का फिलामेंट इस्तेमाल होता है। बल्ब के भीतर आर्गन नामक निष्क्रिय गैस होती है जो ऑक्सीजन की भाँति किसी चीज़ को जला नहीं सकती। जब हम स्विच दबाते हैं तो बिजली इस बल्ब में प्रवाहित होती है जिससे फिलामेंट जल उठता है और उसके जलने की वजह से बल्ब के भीतर ताप पैदा हो जाता है जो प्रकाश में परिवर्तित होकर हमारे घर को रोशन कर देता है। चूँकि बल्ब के भीतर ऑक्सीजन जैसी गैस नहीं होती, इसलिए फिलामेंट पूरी तरह जलकर राख नहीं होता है।
परन्तु एडिसन के बाद भी नये तरह के बल्बों की खोज जारी रही। अब तो ट्यूब लाइट, हैलोजन बल्ब, सीएफएल, एलईडी जैसे नये प्रकार के बल्ब आ चुके हैं जो पुराने बल्ब की अपेक्षा कम बिजली लेकर ज़्यादा रोशनी देते हैं। साथ ही वे बेहतर गुणवत्ता वाली दूधिया रोशनी देते हैं। यही नहीं वे पर्यावरण के दृष्टिकोण से भी बेहतर विकल्प हैं। इनमें से एलईडी बल्ब सबसे आधुनिक क़िस्म के हैं। एलईडी (लाइट एमिटिंग डायोड) बेहद छोटे आकार के बल्ब होते हैं जो ऐसे तत्वों से बने होते हैं जिन्हें सेमीकंडक्टर कहा जाता है। इस तरह के बल्ब कुछ मोबाइलों में टॉर्च के रूप में इस्तेमाल किये जाते हैं। पुराने बल्बों की तरह वे पहले बिजली को उष्मा में और फिर उष्मा को प्रकाश में नहीं बल्कि सीधे बिजली को प्रकाश में बदलते हैंं। यही वजह है कि उनमें कम उर्जा ख़र्च होती है। लाल और हरे रंग वाले एलईडी बल्बों की खोज बहुत पहले ही हो चुकी थी, लेकिन नीले रंग के एलईडी बल्ब की हालिया खोज के बाद ही सफ़ेद रोशनी फैलाने वाला एलईडी बल्ब बनाया जाना सम्भव हो सका। नीले रंग के इन एलईडी बल्बों की खोज करने वाले तीन वैज्ञानिकों को इस साल का नोबल पुरस्कार भी दिया गया है। एलईडी बल्बों का इस्तेमाल आने वाले दिनों में बहुत तेज़ी से बढ़ेगा।
तो ये रहा हमारी ज़िन्दगी रोशन करने वाले विद्युत बल्ब का सफ़रनामा! लेकिन क्या तुम्हें पता है कि विज्ञान की इस शानदार उपलब्धि के बावजूद आज भी दुनिया भर के करोड़ों ऐसे लोग हैं जो अंधेरे में रहने को मज़बूर हैं क्योंकि उन तक अभी भी बिजली की रोशनी नहीं पहुँची है? इसकी क्या वजह हो सकती है, इस पर सोचना!
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