आलसी तिम्मा
• एम.आर. शिवशंकर
एक गाँव था, वहाँ एक बूढ़ी दादी थी। उसके एक पोता था जिसका नाम तिम्मा था। वह आलसी था, बहुत आलसी। न समय पर खाता, न सोता, न कोई काम करता।
बूढ़ी दादी को हमेशा यही चिन्ता लगी रहती थी कि इसे कब समझ आयेगी? दादी के घर में एक गौरैया घोंसला बनाकर रहती थी। दादी को रोज बड़ी मेहनत मशक्कत करते देख उसे भी बुरा लगता था।
एक दिन तिम्मा से उसने कहा, ‘क्यों रे तिम्मा, इतना हट्ठा कट्ठा है, कुछ काम क्यों नहीं करता?’
‘तू कौन बहुत काम करने वाली है? बस उड़कर जाती आती रहती है, और चली है मुझेे सीख देने।’ तिम्मा ने कहा।
‘मैं सिर्फ उड़ती नहीं। अनाज, कीड़े आदि ढूँढ़कर लाती हूँ। घोंसले में बच्चों को खिलाकर मैं भी खाती हूँ। मैं और मेरी पत्नी दोनों मिलकर दिन में 70 से 100 बार खाना ढूँढ़कर लाते हैं, समझे!’ गौरैया ने कहा।
‘हजार बार उड़कर जाओ, उससे मुझे क्या मतलब। मेरी बातों में दख़ल दिया तो मैं तेरा घोंसला तोड़कर फेंक दूँगा, समझे?’ तिम्मा ने कहा। उसकी बातों से डरकर गौरैया उड़कर भाग गई।
‘इस आलसी को सही राह पर लाना ही होगा।’ गौरैया ने सोचा। उसे एक उपाय सूझा, वह तुरन्त दादी के पास गयी।
‘दादी, तिम्मा अगर आलसी है तो इसका कारण तुम हो। उसे रोज समय पर खाना बनाकर खिला देती हो, इसी कारण वह ऐसा हुआ है। मेरा कहा मानो तो वह समझदार बन जायेगा।’ उसने कहा।
गौरैया ने अपना उपाय दादी को बताया।
अगले दिन खाने के समय जब तिम्मा रसोईघर में घुसा तो उसे दादी माँ दिखायी नहीं पड़ी। वह कमरे में कम्बल ओढ़कर पड़ी रही।
‘दादी माँ, मुझे भूख लगी है, आकर खाना परोसो!’ उसने कहा।
‘मुझे शीत ज्वर है। मैं खाना नहीं पका सकी। लकड़ी भी खत्म हो गयी है। जंगल जाकर लकड़ी चुन लाओ। किसी तरह पकाकर तुम्हें खिला दूँगी।’ दादी ने कहा।
‘जंगल जाकर लकड़ी कौन लायेगा’ कहकर तिम्मा वहीं पड़ा रहा। जब उसकी आँख खुली तबतक उसे बहुत भूख लग आयी थी। उसने रसोईघर के कोने-कोने में ढूँढ़ा। उसे खाने के लिए वहाँ कुछ भी नहीं मिला। गौरैया की बात मानकर दादी माँ ने पहले ही सब चीजें वहाँ से हटाकर अलग रख दी थी।
कोई और राह न सूझी तो तिम्मा कुल्हाड़ी उठाकर जंगल गया। भूख और प्यास से वह निढाल हो रहा था। वहाँ जाकर एक पेड़ के नीचे सो गया।
‘टक…टक’ की आवाज सुनकर तिम्मा की नींद खुल गई, उसने उस ओर देखा जहाँ से आवाज आ रही थी। सोने का हल्दिया और काला रंग, सिर और उसके पिछले हिस्से का लाल रंग, गले पर काला और सफेद — इस तरह कई रंगोंवाली एक चिड़िया पेड़ पर चोंच मार रही थी।
‘कौन है, जो इतना शोर मचा रहा है?’ तिम्मा ने आँख मलकर पूछा। ‘मुझे कठफोड़वा कहते हैं। मैं ही यह आवाज कर रहा हूँ।’
‘इससे क्या लाभ?’ उस पक्षी से उसने पूछा। ‘मेरी नींद उचट गई तुम्हारे कारण।’
‘इस समय कौन सोता है भला? खूब मेहनत करके कमाओ खाओ। सोया तो रात को ही जाता है।’
‘खाओ न, किसने मना किया है, लेकिन वह टक…टक की आवाज कैसी?’ तिम्मा ने कहा।
‘देखो, पेड़ में छेद बनाकर घर बनाने वाले कीड़े-मकोड़े मेरा आहार हैं। पेड़ को मैं चोंच से मारता हूँ। कहीं ढीला-सा लगने पर वहाँ सेंध बनाता हूँ, जीभ से कीड़े पकड़कर खाता हूँ। पेड़ पर चोंच मारते समय आवाज तो होगी ही।’ इतना कहकर पक्षी ने फिर से पेड़ को फोड़ना शुरू कर दिया।
‘यह छोटा-सा पक्षी कितना कष्ट उठाता है,’ कहते हुए तिम्मा आगे बढ़ा।
‘चिप…चिप…चीविट’ कई पक्षियों की आवाज सुनायी दी। तिम्मा ने उधर मुड़कर देखा। फूल के पौधों की झाड़ी में छोटे-छोटे पक्षी एक से दूसरे फूल पर उड़ते हुए अपनी लम्बी झुकी चोंच से फूलों पर झुककर पराग खींच रहे थे। लगातार आवाज करते, उड़ते उन पक्षियों को देखकर तिम्मा ने उनसे पूछा, ‘आप कौन हैं, और क्या कर रहे हैं?’
‘हम गाने वाले पक्षी हैं, तुम नहीं जानते, चुप बैठने से थोड़े ही पेट भरता है। हम फूलों पर उड़कर उनका पराग पी लेते हैं।’ गायक पक्षी ने कहा।
‘कितने छोटे आकार के पक्षी हैं, लेकिन पेट भरने के लिए कितना श्रम करते हैं।’ तिम्मा ने कहा। यह सुन कर गायक पक्षी बोला ‘श्रम से ही पेट भरता है। तुम क्या काम करते हो?’
छोटे पक्षी को तिम्मा कोई उत्तर न दे सका, उसने सिर झुका लिया। उसने निश्चय किया कि वह आगे से खूब काम करने के बाद ही खाना खायेगा।
‘यहाँ पर पीने का पानी कहाँ मिलेगा?’
‘यहाँ से सीधे चले जाओ, वहाँ पर एक तालाब है।’ गायक पक्षी ने कहा।
तिम्मा तालाब की दिशा में आगे बढ़ने लगा।
पेड़-पौधों की झाड़ी में घुसा हुआ — उपर से हरा, और नीचे सफेद, सिर पर फीके नीले रंग और लम्बी पूँछ वाला एक पक्षी ‘टुविट-टुविट’ की आवाज के साथ कुछ काम कर रहा था।
तिम्मा वहीं खड़ा हो गया और उस पक्षी को देखने लगा। वह पक्षी पौधे के दो पत्तों के बीच रेशों से सिलाई कर रहा था।
‘तुम कौन हो, इन पत्तों को इस तरह क्यों सिल रही हो?’ उसने पूछा।
‘मैं दर्जी पक्षी हूँ। अण्डा देने के लिए मैं घोंसला बना रही हूँ।’
उसकी बात सुनकर तिम्मा बोला, ‘वाह रे! एक मूँठ भर इसका आकार नहीं। कितनी अच्छी सिलाई कर रही है।’
फिर वह तालाब पर पहुँचा।
वहाँ पानी पर उसने देखा कि कबूतर से भी छोटा एक पक्षी वहाँ उड़ रहा था। सफेद रंग और काले रंगों वाला यह पक्षी उड़ना छोड़कर एकदम रुक गया। फिर दोनों पंख समेट कर पानी में डूब गया।
तिम्मा अभी यह सोच ही रहा था कि यह कौन है और पानी में क्यों डूबा कि तब तक वह पक्षी पानी से बाहर निकल भी आया। उसकी तलवार जैसी लम्बी चोंच में एक मछली दबी थी। उड़कर वहीं एक चट्टान पर जा बैठा और मजे से खाने लगा। वह वक राजा था।
‘संसार का हर जीव अपना पेट भरने के लिए श्रम करता है। मैं इतना बड़ा हो गया हूँ, फिर भी अब तक दादी माँ के हाथ का अन्न खा रहा हूँ। आगे से काम करके मुझे खाना चाहिए’ तिम्मा ने निश्चय किया।
तालाब का पानी भरपेट पीकर उसने काफी लकड़ियाँ काट लीं और उन्हें उठाकर घर ले आया।
उस दिन से वह खूब श्रम करता, दादी माँ की मदद करता और सभी से प्रशंसा पाता।
पोते को समझदार देखकर दादी माँ खुश थी। उपाय सुझाने वाली गौरैया की उसने खूब प्रशंसा की। गौरैया भी अपने उपाय का फल देखकर खुश थी।
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